अंक- ११४६ पेज ६

06जब पूर्व सम्पादक स्वõ गौरी शंकर रजक जी एक बार भारी बीमारी से उठकर मुआवजे के लिए आवाज उठायी थी तो उन्होंने एक कविता लिखा था प्रस्तुत है वह :-

जिधर नजर उठाऊँ, सुनसान डगर वीसन संनाटा।
यह है मेरी कविता, अन्धेरी रात हर तरफ कुहाषा।।
गली में कुत्ते भी नहीं भौंकते फिर भी बढ़ता जा रहा हूँ।
कौन अब पढ़ेगा रामायण, कौन पढ़ेगा गीता।।
यह मैं हूँ और यह है मेरी कविता।।।
गाँधी की तरह चलते-चलते मैं भारी बीमारी से गिर पाड़ा।
लोग हँसने लगा समझा कोई पागल है मरते-मरते मैं न मरता न जीता।।
कड़कती धूप मैं पड़ा कर दो माह बीमार रहा।
पत्राकारों ने मुझे कोसा और खुब कहा।।
न मुझे दवा मिलान मिला आहार।
अस्पताल के डाॅक्टरों ने किया बरमादे से बाहार।।
मैं रोते रहा षिसकते रहा सरिता।
यह मैं हूँ और यह मेरी कविता।।
रोते विखलते मैं कल्याण से मांगी सहायता।
नहीं दिया, मैं हिम्मतन हारा तुरन्त ही अनुमण्डल गया।।
अनुमण्डल के आदेष को कल्याण ने नाकार आवेदन फाड़ डाला।।
कैसा है झारखण्ड कौन है विधाता।
यह मैं हूँ और यह है मेरी कविता।।
फिर भी आगे बढ़ा कई पत्राकारो बंधुओं के साथ
दुमका उपायुक्त से मांगा सहारा उन्होंने मेरा प्रमाण्ड पत्रा फेका।
न ही मेरा विकलांग षरीर को देखा मैं था षुरू से एक तमाषाा।
फिर भी मैन थका वायु की तरफ उठा।
और उठते चले गया, यह है मेरी कविता।।
सबने बनाया मेरा खूब तमाषा।
हर तरफ है अंधकार और निराषा।।
यह मैं हूँ और यह है मेरी कविता।।