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08और अंत में:- दीन दलित के पूर्व संपादक स्व0 श्री गौरी षंकर रजक जी 2007 में लिखा हिजला मेला पर प्रस्तुत एक लोक गीत:- 
2014 हिजला मेला
(किसानी मेला) 07.02.2014
दुमका (झारखण्ड) – लोक गीत

आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।
रंग विरंगी उपजाऊँ में, भरल छे मैंदनवां।।
आज कृषक के गृहणी नाचे खंके सब कंगनवां।
आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

जे जमीन बंजर पड़ल वा, अब उपजाऊ बनावा हो।
तील – तील भूमि पर भईया, कुछ न कुछ उपजावों हो।।
अब सूते के काम नहीं छे, उठल छे किरनवां।
आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

विना औजार के खेती भईया, कैसे हाते पूरनवां।
न पानी छे न बिजली छे, बचते कैसे जीवनवां।।
न मकई छे न गेहूँ छे, खाली छे खलिहनवां।
आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

जुट, कपास रवि फसल में जोर लगाओं भाई रे।
जब केतारी दलहन, तेलहन खुब उगावो भाई रे।।
घर-घर मंे गेहूँ लगावों तील और सरसोई रे।
आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

रोज सरकार वाले छे वतिया, इल बैल देवो औजार हो।
वोटवा ले के खातीर वोले छो, सुने वतियां हजार हो।।
जीते के बाद भूले छे वतियाँ, यही राजनीति के चाल हो।
आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

कुर्सी के लपड़ा-झपड़ा में देष डोले पैमाल हो।
केकर धन आरो केकर कुर्सी बुढ़वा वोले छो बात हो।।
छीन झपट आरो नोच चैथ में विकास में होले दिलनावाँ।
आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

ठीकेदारों के घरों में दु-दु गाड़ी, विचोलिया बनाल को बिल्डींग हो।
दारू, मांस, मछली के भईया, खुव चलेछे पटनवां।।
नेता आरों दलाल ठगे छो, राज होलो वईमनवां।।
आवो कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

नहीं विकास न रोजगार, नहीं नौकरी के ठीकनवां।
अपना हक मत मांगज हो भई छीनी के ले ले समनवां।
जीवन भर तकरार ही हो तो न हो तो विहनवां।
आज किसान के गृहणी नाचे खंके सबके कगनवां।
आओ कृषि के मेला लगल वा, अएले सब किसानवाँ।

दीन दलित पत्रा (संपादक)
लेखक – स्व0 जी0 एस0 रजक, दुमका झारखण्ड।